- अरविन्द मोहन
बेरोजगारी के मामले में भी बेहतर आंकड़े देखने में आए हैं। जिस एक चीज से आर्थिक जानकार सबसे ज्यादा आश्वस्त हुए हैं वह है खेती के नतीजे। खरीफ की फसल अच्छी होने के बाद अब रबी के भी रिकार्ड पैदावार की उम्मीद की जा रही है। इन्हीं सबका नतीजा है कि इस वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में विकास दर आधे फीसदी से ज्यादा ऊपर दिखाई देने लगा है
जिस समय शेयर बाजार गोते लगा रहा हो और निवेशकों के लाखों करोड़ देखते-देखते स्वाहा हो रहे हों, जब डालर के खिलाफ रुपए की गिरावट रोकने के लिए सरकार मुश्किल से काम आए लाखों-करोड़ों डालर बाजार में उतारे और वे भी गिरावट को न रोककर खुद स्वाहा हो जाएं और जब सोना देखते-देखते नब्बे हजार प्रति दस ग्राम को छूता नजर आए तब यह कहना बहुत जोखिम और दिलेरी का काम है कि हमारी अर्थव्यवस्था काफी समय बाद मजबूती के लक्षण दिखा रही है और उसके बुनियादी पैमाने ऊपर की दिशा का ही रुख बनाए हुए हैं। और जब मोदी राज में आर्थिक प्रबंधन के हिसाब से केन्द्रीय भूमिका वाले शक्तिकान्त दास को रिजर्व बैंक के गवर्नर पद से सेवानिवृत्त होने के बाद प्रधानमंत्री का दूसरा प्रधान सचिव बनाने जैसा अपूर्व काम हुआ हो तब यह कहना भी मुश्किल है कि सरकार को आर्थिक मोर्चे की भारी हलचलों की परवाह नहीं है। शक्तिकान्त दास कोई बहुत भारी अर्थशास्त्री न हों और न ही उन्होंने सरकार में वित्त सचिव या रिजर्व बैंक का गवर्नर रहते कोई बहुत क्रांतिकारी कदम उठाया हो लेकिन इतना तो उनके पक्ष में जाता है कि मोदी सरकार के बुनियादी स्वभाव से उनका मेल है और उन्होंने अपनी प्रशासनिक जिम्मेवारियां उसी हिसाब से निभाई हैं। मोदीजी के नोटबंदी जैसे मुश्किल और गलत फैसले के बीच अर्थव्यवस्था और मुद्रा व्यवस्था को संभालना कोई आसान काम न था।
जिस हिसाब से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अपने ऊटपटांग आर्थिक फैसलों से दुनिया भर में हड़कंप मचाए हुए हैं उसके बीच अपनी अर्थव्यवस्था की मजबूती के कोंपलों को संभालना और इसे एक स्वाभाविक विकास की तरफ ले जाना कोविड की तालाबंदी और नोटबंदी को संभालने से भी ज्यादा मुश्किल है। जब वैश्विक उथल-पुथल हो और बड़े जतन से बने विश्व व्यापार संगठन वाली व्यवस्थाओं को भी बेमानी बनाने का अभियान अमेरिकी राष्ट्रपति चलाएं तब निवेशकों और पूंजी का डर जाना बहुत स्वाभाविक है। बाइडन राज में अमेरिकी बांड और बैंकों की रकम पर कमाई का भरोसा बढ़ने से भी भारत समेत दुनिया भर के बाजारों से पूंजी अमेरिका गई थी। फिर चीन ने अपने निवेश नियम आसान किए और करों की छूट शुरू की तो उसने भी बड़े पैमाने पर पूंजी आकर्षित की। अब ट्रम्प द्वारा आयात पर कर बढ़ाने और कई देशों को सीधे धमकाने से बाजार में बेचैनी है। जाहिर तौर पर ऐसे वक्त निवेशक के लिए शेयर बाजार की अनिश्चितता से हटकर डालर, अमेरिकी सरकारी बांड और सोने में पैसा लगाना ज्यादा भरोसे का सौदा है। इसलिए बाजार में गिरावट के साथ डालर की महंगाई और सोने की बेतहाशा मांग बढ़ी है। वैश्वीकरण के युग में हम, खासकर बाजार इससे अछूते नहीं रह सकते।
जनवरी का विदेश व्यापार का आंकड़ा भी बताता है कि सिर्फ चालू घाटे के मामले में ही नहीं आइटम के हिसाब से भी हमारा विदेश व्यापार बेहतर हुआ है। वैश्विक स्तर पर सोने की मांग बढ़ने के के बावजूद सोना-प्रेमी भारत में आयात नहीं बढ़ा है। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में वैश्विक तेजी के बावजूद हमारे आयात बिल में ज्यादा वृद्धि नहीं हुई है और तेल उत्पादों तथा गहनों के अलावा बाकी चीजों के निर्यात में तेजी दिखी है। महंगाई का सामान्य ग्राफ काफी समय से नियंत्रण में रहने के बाद सरकार और रिजर्व बैंक को यह भरोसा हुआ है कि लंबे समय बाद पहली बार बैंक दरों में पचीस प्वाइंट की कमी की गई। इससे लोन आसान होगा और आर्थिक गतिविधियों में तेजी आएगी। इस तेजी का इंतजार बाकी सभी क्षेत्रों में है और सरकार अलोकप्रियता या स्थिति हाथ से निकलने के डर से कई चीजों को रोके हुए है और अब अर्थव्यवस्था में मांग कम होने, ऋ ण मांगने वालों में कमी आने जैसे लक्षण भी दिखने लगे थे। इधर बेरोजगारी के मामले में भी बेहतर आंकड़े देखने में आए हैं। जिस एक चीज से आर्थिक जानकार सबसे ज्यादा आश्वस्त हुए हैं वह है खेती के नतीजे। खरीफ की फसल अच्छी होने के बाद अब रबी के भी रिकार्ड पैदावार की उम्मीद की जा रही है।
इन्हीं सबका नतीजा है कि इस वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में विकास दर आधे फीसदी से ज्यादा ऊपर दिखाई देने लगा है जबकि दूसरी तिमाही में यह बहुत कम था। इस संकेत से यह उम्मीद मजबूत हुई है कि दुनिया में चाहे जो उठापटक चले भारत के आर्थिक विकास पर ज्यादा असर नहीं होगा। बुरा हो या अच्छा, पर अभी तक जीडीपी में विदेश व्यापार का हिस्सा ज्यादा बड़ा न होने से भी हम सुरक्षित हैं और यह बात बाहर की दुनिया को कुछ देर से मालूम हुई हो लेकिन सरकारी तंत्र को सिंगनल पहले से मिल रहे होंगे। यह बात हमारा बजट भी बताता है। हमारा राजकोषीय घाटा पहली बार साढ़े चार फीसदी के नीचे आया और हर बार टैक्स कलेक्शन का रिकार्ड बनना बताता है कि अर्थव्यवस्था का नान-फार्मल से फार्मल होने का अभियान चलाने के साथ ही वांछित दिशा में भी प्रगति हो रही है। यह वांछित दिशा क्या हो इस पर बहस हो सकती है लेकिन सरकार अपने अभियान में, जो काफी हद तक भूमंडलीकरण के अभियान से संचालित था या वोट पाने की हल्की राजनीति से, सफल रही है। आज नए सिरे से रेवड़ी बनाम अच्छा आर्थिक प्रशासन का मुद्दा उठाने लगा है पर बहस सही दिशा में नहीं चली है।
संयोग से बजट ही इस विरोधाभास को सबसे अच्छी तरह बता भी देता है। इस बार के बजट का सबसे चर्चित फैसला आयकर की सीमा को बारह लाख करना था। यह काम पिछले बजट में नहीं किया गया जबकि वह लोक सभा चुनाव के पहले का आखिरी बजट था। उस चुनाव के नतीजों और अन्य संकेतों से लग गया कि मध्य वर्ग भाजपा और नरेंद्र मोदी से दूर हो रहा है तो इस भारी-भरकम राहत के जरिए उसे पटाया गया। माना जाता है कि दिल्ली में भाजपा की जीत में उससे भी मदद मिली। बजट के इस पक्ष को भुला दिया गया (राजकोषीय अनुशासन की बात को भी) कि सरकार के लिए अब संरचना क्षेत्र में ज्यादा खर्च करना संभव नहीं है। वह क्षेत्र लगभग अघा चुका है। हर दस साल में देश के सभी राजमार्गों को खोदकर दोबारा बनाया जाए तब भी सरकारी खजाना तय रकम नहीं खर्च कर सकता। संविधान द्वारा सड़क (राष्ट्रीय राजमार्ग), रेल, रक्षा, हवाई अड्डा और बंदरगाहों पर ही निवेश की सीमा तय करने से ऐसी स्थिति आई है। इसलिए कितने हवाई अड्डे और कितने माडल स्टेशन और कहां-कहां बनाए की बात होती है इसे भी याद करें। बड़ा सवाल यही है कि सरकार की प्राथमिकता क्या हों। वह अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखे या चुनाव और चुनावी चंदे को। असली मुश्किल यही है कि हर बार अर्थव्यवस्था कमर कसकर आगे आती है और हर बार चुनाव उसकी छाती के ऊपर बैठ जाता है।